हिन्दी साहित्य

Sunday, May 09, 2021

मुक्तक

 कर्म का दीप जला जाता है।
दर्द का शैल गला जाता है। 
वक्त को कौन रोक पाया है, 
वक्त आता है, चला जाता है।। 
    
-डॉ अशोक अज्ञानी 

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Wednesday, October 04, 2006

दीवाली की रात

हँसी फुलझड़ी सी महलों में दीवाली की रात
कुटिया रोयी सिसक सिसक कर दीवाली की रात।


कैसे कह दें बीत गया युग ये है बात पुरानी
मर्यादा की लुटी द्रोपदी दीवाली की रात।


घर के कुछ लोगों ने मिलकर खूब मनायीं खुशियाँ
शेष जनों से दूर बहुत थी दीवाली की रात।


जुआ खेलता रहा बैठकर वह घर के तलघर में
रहे सिसकते चूल्हा चक्की दीवाली की रात।


भोला बचपन भूल गया था क्रूर काल का दंशन
फिर फिर याद दिला जाती है दीवाली की रात।


तम के ठेकेदार जेब में सूरज को बैठाये
कैद हो गई चंद घरों में दीवाली की रात।


एक दिया माटी का पूरी ताकत से हुंकारा
जल कर जगमग कर देंगे हम दीवाली की रात।
***

-डॉ० जगदीश व्योम

Friday, September 22, 2006

आहत युगबोध के ....

आहत युगबोध के जीवंत ये नियम
यूं ही बदनाम हुए हम !

मन की अनुगूंज ने वैधव्य वेष धार लिया
कांपती अंगुलियों ने स्वर का सिंगार किया
अवचेतन मन उदास
पाई है अबुझ प्यास
त्रासदी के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

अलसाई कामनाएं चढ़ने लगीं सीढ़ियाँ
टूटे अनुबंध जिन्हें ढो रही थी पीढ़ियाँ
वैभव की लालसा ने
ललचाया मन पांखी
संज्ञा से आज सर्वनाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

दुख नहीं तो सुख कैसा सुख नहीं तो दुख कैसा
सुख है तो दुख भी है, दुख है तो सुख भी है
दुख सुख का अजब संग
अजब रंग अजब ढंग
दुख तो है सुख की विजय का परचम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

कविता के अक्षरों में व्याकुल मन की पीड़ा है
उनके लिए तो कवि-कर्म शब्द-क्रीडा है
शोषित बन जीते हैं
नित्य गरल पीते हैं
युग की विभीषिका के नाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

युग क्या पहचाने हम कलम फकीरों को
हम ते बदल देते युग की लकीरों को
धरती जब मांगती है विषपायी कंठ तब
कभी शिव मीरा घनश्याम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

व्योम गुनगुनाया जब अंतस अकुलाया है
खड़ा हुआ कठघरे में खुद को भी पाया है
हम भी तो शोषक हैं
युग के उदघोषक हैं
घोड़ा हैं हम ही लगाम हुए हम
यूं ही बदनाम हुए हम !!

- डॉ॰ जगदीश व्योम

Saturday, July 08, 2006

माइक्रोसाफ्ट इण्डिया भाषा पुरस्कार

मित्रो !
मेरे इस ब्लाग को माइक्रोसाफ्ट इण्डिया भाषा पुरस्कार के लिए चुना गया है।
http://desh-duniya.blogspot.com/2006/06/blog-post_26.html

***

http://www.bhashaindia.com/contests/iba/Winners.aspx

मेरे हिन्दी साहित्य विषयक इण्टरनेट पर किए गए कार्य को पसन्द किया इस हेतु बहुत बहुत आभार।
हिन्दी साहित्य ब्लाग की अगली कड़ी है-
www.hindisahitya.blogspot.com
www.jagdishvyom.blogspot.com
www.narmadateere.blogspot.com
www.kavisaral.blogspot.com
www.haikukanan.blogspot.com
www.haikudarpan.blogspot.com


डॉ॰ जगदीश व्योम

परिचय













डॉ॰ जगदीश व्योम
बी-12ए 58ए
धवलगिरि, सेक्टर-34
नोएडा-201301
भारत
email-
jagdishvyom@gmail.com
www.vyomkepar.blogspot.in

गजल

बहते जल के साथ न बह
कोशिश करके मन की कह

कुछ तो खतरे होंगे ही
चाहे जहाँ कहीं भी रह

मौसम ने तेवर बदले
कुछ तो होगी खास बजह

लोग तुझे कायर समझें
इतने अत्याचार न सह

लोकतन्त्र की ये तरणी
छेद हो गये जगह जगह

-डा० जगदीश व्योम

बाजीगर बन गई व्यवस्था

बाजीगर बन गई व्यवस्था
हम सब हुए जमूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

चार कदम भर चल पाये थे
पैर लगे थर्राने
क्लांत प्रगति की निरख विवशता
छाया लगी चिढाने
मन के आहत मृगछौने ने
बीते दिवस बिसूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

हमने निज हाथों से
युग पतवार जिन्हें पकड़ाई
वे शोषक हो गये
हुए हम चिरशोषित तरुणाई
शोषण दुर्ग हुआ
अलवत्ता तोड़ो जीर्ण कँगूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

वे तो हैं स्वच्छन्द
करेंगे जो मन में आएगा
सूरज को गाली देंगे
कोई क्या कर पायेगा
दोष व्यक्ति का नहीं
व्यवस्था में छलछिद्र घनेरे
सपने कैसे होंगे पूरे

मिला भेड़ियों को
भेड़ों की अधिरक्षा का ठेका
कुछ सफेदपोशों को मैंने
देश निगलते देखा
स्वाभिमान को बेंच उन्हें मैं
कैसे नमन करूँ रे
सपने कैसे होंगे पूरे

-डा० जगदीश व्योम

हाइकु




छिड़ा जो युद्ध
रोयेगी मानवता
हँसेंगे गिद्ध.


धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमें.


सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये.



मैं न बोलूँगा
बोलेंगी कविताएँ
व्यथा मन की.


यूँ ही न बहो
पर्वत सा ठहरो
मन की कहो.


पतंग उड़ी
डोर कटी बिछुड़ी
फिर न मिली.

-डा० जगदीश व्योम

छन्द

मस्त मँजीरा खनकाय रही मीरा
और रस की गगरियाँ रसखान ढरकावैं हैं
संग संग खेलैं खेल सूर ग्वाल बालन के
दुहि पय धेनु को पतूखी में पिवाबैं हैं
कूटि कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा
गीत गाथन की ध्वनि जहाँ कान परि जावै है
ऍसी ब्रजभूमि एक बेर देखिवे के काज
देवता के देवता को मनु ललचावै है.
-डा० जगदीश व्योम
 
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