हिन्दी साहित्य

Saturday, July 08, 2006

छन्द

मस्त मँजीरा खनकाय रही मीरा
और रस की गगरियाँ रसखान ढरकावैं हैं
संग संग खेलैं खेल सूर ग्वाल बालन के
दुहि पय धेनु को पतूखी में पिवाबैं हैं
कूटि कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा
गीत गाथन की ध्वनि जहाँ कान परि जावै है
ऍसी ब्रजभूमि एक बेर देखिवे के काज
देवता के देवता को मनु ललचावै है.
-डा० जगदीश व्योम

7 Comments:

  • At 5:09 AM, Blogger प्रेमलता पांडे said…

    "कूटि-कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा" बहुत ही सुंदर! आँचलिक पुट!
    -प्रेमलता पांडे

     
  • At 2:28 AM, Blogger Unknown said…

    एक ही रोटी
    जली तवे पर क्या
    खायेगा लाल?

     
  • At 9:46 AM, Blogger KPSinghFakeera said…

    bahut sundar.

     
  • At 11:50 PM, Blogger भावी इंजीनियर said…

    मैं 20 साल का नवयुवक हूँ , आपकी कविताओँ को पढ़ कर मेरा बचपन का हिन्दी साहित्य प्रेम फिर जाग्रत हो गया। इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद॥

     
  • At 11:50 PM, Blogger भावी इंजीनियर said…

    मैं 20 साल का नवयुवक हूँ , आपकी कविताओँ को पढ़ कर मेरा बचपन का हिन्दी साहित्य प्रेम फिर जाग्रत हो गया। इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद॥

     
  • At 11:50 PM, Blogger भावी इंजीनियर said…

    मैं 20 साल का नवयुवक हूँ , आपकी कविताओँ को पढ़ कर मेरा बचपन का हिन्दी साहित्य प्रेम फिर जाग्रत हो गया। इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद॥

     
  • At 11:59 PM, Blogger भावी इंजीनियर said…

    आपकी रचनाएँ निश्चय ही बहुत ही उत्क्रष्ट कोटि की हैं। मैं अदना सा युवक आपकी किस तरह प्रशंसा कर सकता हूँ, नहीं जानता।

     

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