छन्द
मस्त मँजीरा खनकाय रही मीरा
और रस की गगरियाँ रसखान ढरकावैं हैं
संग संग खेलैं खेल सूर ग्वाल बालन के
दुहि पय धेनु को पतूखी में पिवाबैं हैं
कूटि कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा
गीत गाथन की ध्वनि जहाँ कान परि जावै है
ऍसी ब्रजभूमि एक बेर देखिवे के काज
देवता के देवता को मनु ललचावै है.
-डा० जगदीश व्योम
और रस की गगरियाँ रसखान ढरकावैं हैं
संग संग खेलैं खेल सूर ग्वाल बालन के
दुहि पय धेनु को पतूखी में पिवाबैं हैं
कूटि कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा
गीत गाथन की ध्वनि जहाँ कान परि जावै है
ऍसी ब्रजभूमि एक बेर देखिवे के काज
देवता के देवता को मनु ललचावै है.
-डा० जगदीश व्योम
7 Comments:
At 5:09 AM,
प्रेमलता पांडे said…
"कूटि-कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा" बहुत ही सुंदर! आँचलिक पुट!
-प्रेमलता पांडे
At 2:28 AM,
Unknown said…
एक ही रोटी
जली तवे पर क्या
खायेगा लाल?
At 9:46 AM,
KPSinghFakeera said…
bahut sundar.
At 11:50 PM,
भावी इंजीनियर said…
मैं 20 साल का नवयुवक हूँ , आपकी कविताओँ को पढ़ कर मेरा बचपन का हिन्दी साहित्य प्रेम फिर जाग्रत हो गया। इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद॥
At 11:50 PM,
भावी इंजीनियर said…
मैं 20 साल का नवयुवक हूँ , आपकी कविताओँ को पढ़ कर मेरा बचपन का हिन्दी साहित्य प्रेम फिर जाग्रत हो गया। इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद॥
At 11:50 PM,
भावी इंजीनियर said…
मैं 20 साल का नवयुवक हूँ , आपकी कविताओँ को पढ़ कर मेरा बचपन का हिन्दी साहित्य प्रेम फिर जाग्रत हो गया। इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद॥
At 11:59 PM,
भावी इंजीनियर said…
आपकी रचनाएँ निश्चय ही बहुत ही उत्क्रष्ट कोटि की हैं। मैं अदना सा युवक आपकी किस तरह प्रशंसा कर सकता हूँ, नहीं जानता।
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