हिन्दी साहित्य

Wednesday, October 04, 2006

दीवाली की रात

हँसी फुलझड़ी सी महलों में दीवाली की रात
कुटिया रोयी सिसक सिसक कर दीवाली की रात।


कैसे कह दें बीत गया युग ये है बात पुरानी
मर्यादा की लुटी द्रोपदी दीवाली की रात।


घर के कुछ लोगों ने मिलकर खूब मनायीं खुशियाँ
शेष जनों से दूर बहुत थी दीवाली की रात।


जुआ खेलता रहा बैठकर वह घर के तलघर में
रहे सिसकते चूल्हा चक्की दीवाली की रात।


भोला बचपन भूल गया था क्रूर काल का दंशन
फिर फिर याद दिला जाती है दीवाली की रात।


तम के ठेकेदार जेब में सूरज को बैठाये
कैद हो गई चंद घरों में दीवाली की रात।


एक दिया माटी का पूरी ताकत से हुंकारा
जल कर जगमग कर देंगे हम दीवाली की रात।
***

-डॉ० जगदीश व्योम

7 Comments:

  • At 11:29 PM, Blogger गिरिराज जोशी said…

    "भोला बचपन भूल गया था क्रूर काल का दंशन"

    दंश दिखाए
    भोला बचपन भी
    बहुत खूब!!!

     
  • At 7:59 AM, Blogger Unknown said…

    giri raj ji k baat se mai sahmat hoon

     
  • At 1:02 PM, Blogger Demo Blog said…

    पसन्द आयी..!
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  • At 1:02 PM, Blogger Demo Blog said…



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  • At 7:15 AM, Blogger Demo Blog said…

    ईश्वर करे, सबके घर खुशियाँ जगमगाए , इस दिवाली की रात

     
  • At 11:08 PM, Blogger अजित गुप्ता का कोना said…

    कुटिया रोयी सिसक सिसक कर दीवाली की रात

    बेहतरीन रचना। आपको बधाई।

     
  • At 11:13 PM, Blogger deepa joshi said…


    सुंदर रचना

     

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