हिन्दी साहित्य

Saturday, July 08, 2006

माइक्रोसाफ्ट इण्डिया भाषा पुरस्कार

मित्रो !
मेरे इस ब्लाग को माइक्रोसाफ्ट इण्डिया भाषा पुरस्कार के लिए चुना गया है।
http://desh-duniya.blogspot.com/2006/06/blog-post_26.html

***

http://www.bhashaindia.com/contests/iba/Winners.aspx

मेरे हिन्दी साहित्य विषयक इण्टरनेट पर किए गए कार्य को पसन्द किया इस हेतु बहुत बहुत आभार।
हिन्दी साहित्य ब्लाग की अगली कड़ी है-
www.hindisahitya.blogspot.com
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डॉ॰ जगदीश व्योम

परिचय













डॉ॰ जगदीश व्योम
बी-12ए 58ए
धवलगिरि, सेक्टर-34
नोएडा-201301
भारत
email-
jagdishvyom@gmail.com
www.vyomkepar.blogspot.in

गजल

बहते जल के साथ न बह
कोशिश करके मन की कह

कुछ तो खतरे होंगे ही
चाहे जहाँ कहीं भी रह

मौसम ने तेवर बदले
कुछ तो होगी खास बजह

लोग तुझे कायर समझें
इतने अत्याचार न सह

लोकतन्त्र की ये तरणी
छेद हो गये जगह जगह

-डा० जगदीश व्योम

बाजीगर बन गई व्यवस्था

बाजीगर बन गई व्यवस्था
हम सब हुए जमूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

चार कदम भर चल पाये थे
पैर लगे थर्राने
क्लांत प्रगति की निरख विवशता
छाया लगी चिढाने
मन के आहत मृगछौने ने
बीते दिवस बिसूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

हमने निज हाथों से
युग पतवार जिन्हें पकड़ाई
वे शोषक हो गये
हुए हम चिरशोषित तरुणाई
शोषण दुर्ग हुआ
अलवत्ता तोड़ो जीर्ण कँगूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

वे तो हैं स्वच्छन्द
करेंगे जो मन में आएगा
सूरज को गाली देंगे
कोई क्या कर पायेगा
दोष व्यक्ति का नहीं
व्यवस्था में छलछिद्र घनेरे
सपने कैसे होंगे पूरे

मिला भेड़ियों को
भेड़ों की अधिरक्षा का ठेका
कुछ सफेदपोशों को मैंने
देश निगलते देखा
स्वाभिमान को बेंच उन्हें मैं
कैसे नमन करूँ रे
सपने कैसे होंगे पूरे

-डा० जगदीश व्योम

हाइकु




छिड़ा जो युद्ध
रोयेगी मानवता
हँसेंगे गिद्ध.


धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमें.


सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये.



मैं न बोलूँगा
बोलेंगी कविताएँ
व्यथा मन की.


यूँ ही न बहो
पर्वत सा ठहरो
मन की कहो.


पतंग उड़ी
डोर कटी बिछुड़ी
फिर न मिली.

-डा० जगदीश व्योम

छन्द

मस्त मँजीरा खनकाय रही मीरा
और रस की गगरियाँ रसखान ढरकावैं हैं
संग संग खेलैं खेल सूर ग्वाल बालन के
दुहि पय धेनु को पतूखी में पिवाबैं हैं
कूटि कूटि भरे लोकतत्व के सकोरा
गीत गाथन की ध्वनि जहाँ कान परि जावै है
ऍसी ब्रजभूमि एक बेर देखिवे के काज
देवता के देवता को मनु ललचावै है.
-डा० जगदीश व्योम
 
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